वामपंथी इतिहासकारों ने दुनिया में भारत को एक मजबूर देश की तरह प्रस्तुत किया। ज़्यादा नहीं 184 साल पहले ही थामस मैकोली ने इंगलैंड की संसद में कहा था ‘मैंने भारत में एक भी गरीब और बेरोजगार व्यक्ति नहीं देखा, वहाँ सोने के सिक्के गिनते नहीं तौलते हैं। वह हमारी समृद्धि से चकित था।
विलियम डिगबी का नाम कौन नहीं जानता, वह तथ्यों पर आधारित इतिहास लिखने के लिए मशहूर था। उसने कहा ‘भारत में सिर्फ कृषि क्षमता ही नहीं है, यह दुनिया का औद्योगिक और व्यापारिक केंद बनने की क्षमता रखता है। यहाँ की मिट्टी दुनिया की सबसे उपजाऊ मिट्टी है, यहाँ के कारीगर सर्वश्रेष्ठ हैं।
भारत निर्यात प्रधान देश था और आज से 300 साल पहले ही दुनिया का सबसे ‘आत्मनिर्भर’ देश भी। इतिहासकार फ़यांग की पुस्तक में उसने लिखा ‘भारत में 36 ऐसे उद्योग चलते थे जिनसे बनने वाली हर वस्तु का दुनिया भर में सिर्फ निर्यात होता था। हमारे सभी शिल्प उद्योग पूरी दुनिया में सर्वश्रेष्ठ थे।
स्कॉटिश इतिहासकार मार्टिन की किताबें उठा कर पढ़िए। उसने स्पष्ट शब्दों में लिखा ‘भारतीय दुनिया का सबसे बेहतरीन कपड़ा बनाते हैं, और मुझे यह स्वीकारने में परहेज़ नहीं है कि भारत ने ही दुनिया को कपड़े बनाने और पहनने का ढंग सिखाया। रोमन साम्राज्य सारे कपड़े भारत से ही मँगवाता रहा।
अगर आपको अपने ही देश का स्वर्णिम इतिहास विदेशियों से मालूम पड़े तो क्या यह शर्म की बात नहीं है? हमारे इतिहास से भय खाने वाले आक्रांताओं ने कोई कमी नहीं छोड़ी उसे बर्बाद करने में। पर क्या हमने उसे संजो कर रखने की तरफ उचित कदम बढ़ाए? क्या पाठ्यक्रम से इसे जोड़ा?